एक बेटी...
परवरिश का दोष दें,या एहसास की कमी है,
हर बेटी के मा-बाप की, साँसे क्यों थमी है,
हमने बेटी को पुरुषार्थ की, घुट्टी तो पिलाई,
पर अफसोस संस्कारो की, उँगली नहीं थमाई।
गाँव क्या, शहर क्या, उसकी सुरक्षा में फेर है,
मानों लड़की बस लोथड़ा, वो आदमखोर शेर है,
आए दिन होता क्यों, उस बेबस का शिकार है,
बस शरीर की भूख है, या मन का कोई विकार है।
महिला सशक्तिकरण के नारे, अब हम पर न फबते,
जब तलक हम अपने बेटों पर, नियंत्रण नहीं रखते,
विकास और वैश्विकरण के, सपने अब नहीं जचते,
अपने हीं घर में जब शोषण, हम रोक नहीं हैं सकते।
आँखों से टपकता खून, दिल में आज टीस भारी है,
जाने अब आनी अगली, किस निर्भया/ बेटी की बारी है,
एसी वेहशी औलादों से तो, हमें सूनी कोख प्यारी है,
जिसके लिए सिर्फ़ भोग वस्तु, माँ, बहन, बेटी सारी है।
हे भोले! ईस कुकर्म पर, कुपित हर मानवता पुजारी है,
खोल दो त्रिनेत्र अपना, के अब विध्वंस की बारी है,
एसा न हो हर स्त्री अब, काली का रूप धर लाए,
आपकी रचायी यह धरती, पौरुष विहीन हो जाए।
प्रण लेती हूँ कोई शोषण, में न अब स्वीकार करूंगी,
जो निर्बल पर वार करेगा, उस पर दुगना वार करूंगी,
आँखों पर पट्टी बाँधे, हे मानव अब चेत जाओ,
अपनी समझ हर बेटी, दानव मर्दम करके दिखलाओ
एक बेटी...
आर.जालंधरा
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