Friday, 9 February 2018

Gazal



"तुम पर गज़ल लिखना क्यों मुश्किल है "हेमा" ?
 एक मिसरा तुम मेरी अर्ज का उठा लो 
एक मिसरा में तुम्हारी बरुखी का तोड लाता हूं।"

सुन कलम। 
कुछ देर मेरी स्याही को "हेमा" बख्श दे।

शब्दों से नहीं.... अनुगुंज से भरती है हेमा....

गज़ल

आँखो से आँखे मिलाना तो फिर से। 
गज़ल 'हेमा' की गुनगुनाना तो फिर से॥ 
हुईं ईद बरसों से जो मेरी नहीं है। 
रुख से दुपट्टा हटाना तो फिर से॥ 
लिखा नाम तेरा क्यों मिटता नहीं है। 
हाथों की हीना दिखाना तो फिर से॥ 
रूठी तरन्नुम जीस्त ए गज़ल से। 
तराना पुराना सुनाना तो फिर से॥ 
खेल मुहब्बत का खेला था तुमने। 
खेल में मुझको हराना तो फिर से॥ 
दीवारे सिसकती है कमरे की मेरी। 
कमरे को महकाने आना तो फिर से॥ 
बे असर जाम, मयखाने थक से गए है। 
जाम नजरों के अपने पिलाना तो फिर से॥ 
शरमाना था वो कातिलाना तुम्हारा। 
हथेली में चंदा छिपाना तो फिर से॥

Saturday, 3 February 2018

एक बेटी...



एक बेटी...







परवरिश का दोष दें,या एहसास की कमी है, 
हर बेटी के मा-बाप की, साँसे क्यों थमी है, 
हमने बेटी को पुरुषार्थ की, घुट्टी तो पिलाई, 
पर अफसोस संस्कारो की, उँगली नहीं थमाई।

गाँव क्या, शहर क्या, उसकी सुरक्षा में फेर है, 
मानों लड़की बस लोथड़ा, वो आदमखोर शेर है, 
आए दिन होता क्यों, उस बेबस का शिकार है, 
बस शरीर की भूख है, या मन का कोई विकार है।

महिला सशक्तिकरण के नारे, अब हम पर न फबते, 
जब तलक हम अपने बेटों पर, नियंत्रण नहीं रखते, 
विकास और वैश्विकरण के, सपने अब नहीं जचते, 
अपने हीं घर में जब शोषण, हम रोक नहीं हैं सकते।

आँखों से टपकता खून, दिल में आज टीस भारी है, 
जाने अब आनी अगली, किस निर्भया/ बेटी की बारी है, 
एसी वेहशी औलादों से तो, हमें सूनी कोख प्यारी है, 
जिसके लिए सिर्फ़ भोग वस्तु, माँ, बहन, बेटी सारी है।

हे भोले! ईस कुकर्म पर, कुपित हर मानवता पुजारी है, 
खोल दो त्रिनेत्र अपना, के अब विध्वंस की बारी है, 
एसा न हो हर स्त्री अब, काली का रूप धर लाए, 
आपकी रचायी यह धरती, पौरुष विहीन हो जाए।

प्रण लेती हूँ कोई शोषण, में न अब स्वीकार करूंगी, 
जो निर्बल पर वार करेगा, उस पर दुगना वार करूंगी, 
आँखों पर पट्टी बाँधे, हे मानव अब चेत जाओ, 
अपनी समझ हर बेटी, दानव मर्दम करके दिखलाओ
 एक बेटी...
                                              आर.जालंधरा